बुधवार, 1 अगस्त 2012

पंडितो से डरते हैं- भगवान !!

जो लोग ऊंची जाति के लोगों के सामने खड़े होने से भी घबराते थे और उनकी जूठन से अपना और अपने बाल बच्चों का पालन करते थे, वे आज साहब की कुर्सी पर बैठे दिखाई देते हैं. एक वर्ग के लिए इस स्थिति को पचा सकना बहुत मुश्किल काम है. यही कारण है कि, दलितों पर कथित सवर्ण वर्ग का आक्रोश किसी न किसी बहाने प्रकट होता रहता है.

          वर्ष २००७ के जाते जाते यह समाचार आ गया था कि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर पहली बार एक दलित की नियुक्ति हुई है. सर्वोच्च न्यायालय के विरिष्ठ न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की नियुक्ति को तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी स्वीकृति दे दी थी. कैसा विचित्र है हमारा समाज ? यहाँ एक दलित (डॉ.आंबेडकर) को भारत के संविधान का निर्माता होने का गौरव मिल सकता है, एक दलित (जगजीवन राम) उप प्रधान मंत्री हो सकता है, एक दलित (के.आर.नारायणन) राष्ट्रपति बन सकता है, किन्तु दलित वर्ग का दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर अपनी बरात नही निकाल सकता. ऐसा करने के लिए उसे पुलिस संरक्षण की जरूरत पड़ती है. देश के अनेक भागों में दलित वर्ग की महिला लाल किनारी की धोती नही पहन सकती. कुछ भाग ऐसे भी हैं, जहां दलितों को शमशान भूमि में अपनी मृतक देहों के अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं है.

          भारत सरकार का संविधान किसी भी प्रकार के ऊंच-नीच, भेद-भाव, असमानता भरे व्यवहार को दंडनीय अपराध मानता है, किन्तु अब तक पुलिस का संरक्षण न हो अथवा न्यायालय का आदेश न हो, तब तक दलित, देवी-देवता की पूजा अर्चना करने के लिए बहुत से मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते. उड़ीसा के केंद्रपाड़ा के केरड़ागढ़ के ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश पर राज्य के उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद कथित सवर्णों ने बहुत आपत्ति की थी. यहाँ तक की दलितों के प्रवेश से "अशुद्ध" हो गए देवता को शुद्ध करने के लिए कुछ समय तक मंदिर के द्वार भी बंद कर दिए गए थे. कितने कमजोर हैं इन बड़े-बड़े मंदिरों में स्थित देवता ! ऐसा लगता है कि, सदियों से भारत का भगवान, पंडितों-पुरोहितों से डरता आ रहा है. पुरोहित उसे डराता आ रहा है. पुरोहित उसे डराते रहते हैं कि, यदि तुम्हें किसी छोटी जाति वाले ने छू लिया तो तुम अपवित्र हो जाओगे. लंदन में हुए पहले गोलमेज सम्मलेन के बाद ब्रिटानी प्रधानमंत्री रेम्से मैक्डोनाल्ड ने भारत की धार्मिक और जातीय समस्या को सुलझाने के लिए कम्युनल अवार्ड घोषित किया था,  जिसमे मुसलामानों, ईसाइयों, सिक्खों के साथ दलितों को भी अल्पसंख्यक मानकर पृथक निर्वाचन प्रणाली के अंतर्गत लाया गया. दलितों को हिन्दू समाज से पृथक समुदाय मानने के विरोध में गांधी जी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन रख लिया.

          डॉ.राजगोपालाचारी, पंडित मदनमोहन मालवीय, डॉ.जयकर, तेजबहादुर जैसे नताओं ने हस्तक्षेप से गांधी जी का अनशन तुड़वाया और डॉ.आंबेडकर ने दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ दी. फिर सभी की हस्ताक्षरों से एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौता कहा जाता है. इस समझौते में यह निश्चित हुआ था कि, दलितों को हिंदुओं के कोटे में से १५ प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा. उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नही किया जाएगा. उन्हें कुओं, तालाबों से पानी भरने का पूरा अधिकार होगा. सभी मंदिरों के द्वार उनके लिए खोल दिए जायेंगे और आपस में खान-पान में भी कोई भेद भाव नही होगा, किन्तु गांधी जी और मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं के प्रयासों के बावजूद, सवर्ण मानसिकता में विशेष परिवर्तन नही आया. गांवों में उनके साथ पूर्ववत भेदभाव जारी रहा. अधिसंख्य मंदिरों के दरवाजे दलितों के लिए बंद रहे. आखिर कितना बदला है हिंदू समाज ? दलितों पर होने वाले अत्याचार पहले से अधिक बढ़े हैं. आरक्षण नीति के कारण दलित समाज के बहुत से लोग ऊंचे पदों पर पहुँच गए. सवर्ण समाज के बहुत से लोगों को उनके अधीनस्थ होकर काम करना पड़ता है. इसने भयंकर ईर्ष्या और द्वेष को बढ़ावा दिया है.

          गृह मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाली संस्था नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो की २००५ की रिपोर्ट में कहा गया है कि, हर २० मिनट में दलित समुदाय के किसी व्यक्ति के प्रति अन्याय होता है. इस रिकार्ड के अनुसार २००५ में दलितों पर २६,००० से अधिक उत्पीडन के मामले दर्ज किए गए थे, २००७ में १,२०० दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं हुई, ६६९ दलितों की ह्त्या हुई, २५८ लोगों का अपहरण किया गया, लगभग ४,००० दलितों को बुरी तरह घायल किया गया और ८,००० से अधिक अन्याय और अत्याचार के मामले दर्ज हुए. एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट यह भी कही कि, ९४ प्रतिशत मामलों के संबंध में पुलिस ने चार्जशीट भी दाखिल की, किन्तु सजा केवल ३० प्रतिशत लोगों को मिली. दलितों को उत्पीड़ित करने के आरोप में कुल मिलाकर ५८,००० व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया, ४७,००० को चार्जशीट किया गया, किन्तु १३,००० से कम व्यक्तियों पर मुक़दमे चले. इस प्रकार देखें तो आज भी भारत में जातिप्रथा देश के विकास में बाधक बनी हुई है.


आदिवासी सत्ता
--००--