सोमवार, 2 जुलाई 2012

सरकारी एजेंडा आदिवासियों का सफाया

आज हम विकास और प्रगति के दो चेहरे देख रहे हैं. छत्तीसगढ़ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का नतीजा है जहां एक चेहरा भारत के बहुत तेजी से हो रहे विकसित राज्य के रूप में दिखाया जाता है और दूसरा चेहरा गैरकानूनी गिरफ्तारियों, यातनाओं, बलात्कारों और हत्याओं के रूप में दिखाई देता है. सरकार इस दूसरे  चेहरे को ढक कर रखना चाहती है. माओवादी हिंसा पर जमकर शोर शराबा होता है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह ख़बरें सुर्ख़ियों के साथ प्रसारित की जाती है. सुरक्षा बलों पर माओवादी हमले को आम ग्रामीण आदिवासी बदले की कार्यवाही मानता है. आदिवासी अंचलों में माओवादी भी यही प्रचार करते हैं. क्या एक उभरती हुई महाशक्ति का यही असली चेहरा है, जहां मानव अधिकारों और मानवीय गरिमा का कोई स्थान न हो बस आर्थिक विकास की दौड़ ही सबसे ज्यादा मायने रखती हो ?

कितनी लाशें और बिछेंगी बस्तर में ????...
          भारत का सुरक्षा बजट प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है. यहाँ तक कि आर्थिक संकट का भी इस पर कोई असर नहीं पड़ता. भारत सरकार अपनी धनराशि का अधिकाँश हिस्सा अपनी जनता की सुरक्षा पर खर्च करती है. इसके अलावा आंतरिक सुरक्षा संबंधी खतरे से निपटने के लिए सरकार के पास विशेष बजट का भी प्रावधान है और अनेक राज्य सरकारें भी उस पैसे को सुरक्षा पर खर्च करती हैं, जो उन्हें आदिवासियों से संबंधित योजनाओं के लिए प्राप्त होती है. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकार या सरकारें उस पैसे का इस्तेमाल आदिवासियों को मारने के लिए कर रही हैं, जिसे उनके कल्याण और विकास के लिए खर्च करने की अपेक्षा की जाती है. अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि सुरक्षा से संबंधित खतरे से निपटने की प्रक्रिया में निर्दोष आदिवासियों को शिकार बनाया जाता है. तेजी से विकास कर रहा छत्तीसगढ़ राज्य इस मामले में जीता जागता उदाहरण है, जहां अर्द्धसैनिक बलों, स्थानीय पुलिस और कोया कमांडो (आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को लेकर निर्मित सरकारी संगठन) के हाथों भारी संख्या में आदिवासियों को शिकार बनाया  गया है और हिंसक वारदातें करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही करने के बजाय राज्य उनकी अमानवीय हरकतों को न्यायोचित ठहराता है और उनका बचाव करता है.

ताड़मेटला में जले हुए आदिवासियों के घर 
          हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ के कोया कमांडोज, सेन्ट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स और कोबरा बटालियंस ने मिलकर दंतेवाडा जिले के तीमापुरम, मोरपल्ली और ताड़मेटला गांवों के ३०० मकानों को ११ मार्च से १६ मार्च २०११ के बीच जला दिया था और ५ आदिवासी महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया गया. सुरक्षा बालों ने आरोप लगाया कि ये माओवादियों के गाँव हैं. सुरक्षा बलों में २०० कोया कमांडो, १५० कोबरा के सैनिक और ५० सीआरपीएफ़ के जवान शामिल थे. इनका मानना था कि मोरपल्ली गाँव में हथियार बनाने की माओवादियों की एक फेक्ट्री है जिसकी जानकारी उन्हें खुफिया सूत्रों से मिली थी. उन्हें यह भी पता चला था कि इन इलाकों में १०० माओवादी हैं. बहरहाल, सुरक्षा बलों को न तो कोई फेक्ट्री मिली और न कोई माओवादी. पुलिस  ने यह भी स्वीकार किया कि इन कार्रवाईयों के दौरान जो लोग मारे गए वे माओवादी नही थे. क्या हमारे कारपोरेट गृह मंत्री पी.चिदंबरम हमें बताएँगे कि यह किस तरह का नक्सल विरोधी अभियान है, जिसमे निर्दोष अदिवासियों की ह्त्या हुई, महिलाओं का बलात्कार किया गया और तमाम लोगों के घर, कपड़े तथा अनाज सुरक्षा बालों द्वारा जला दिए गए ?

आदिवासियों के जले हुए आशियाने, मोरपल्ली 
          बेशक हमें गृह मंत्रालय से इस बात का जवाब चाहिए कि लोगों को मारने और उनके घरों को जलाने तथा महिलाओं के साथ बलात्कार करने की अर्द्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस को छूट देने वाले उच्च पुलिस अधिकारीयों को क्यों जवाबदेह नहीं बनाया गया और न उन्हें दण्डित किया गया ? गृह मंत्रालय इस मामले पर खामोश क्यों है ? क्या गृह मंत्रालय न्याय के लिए ग्रामवासियों की चीख सुनेगी ? मोरपल्ली गांव की माधवी हुंगे के अनुसार उसके ३० वर्षीय पति मदवी चुल्ला पुलिस की छापामारी के समय एक इमली के पेड़ पर चढ़कर इमली तोड़ रहे थे. सुरक्षा बलों ने उनपर गोली चलाई. माधवी ने अनुरोध किया कि वे ऐसा न करें, लेकिन जवाब में उन्होंने इस पर भी हमला किया. किसी तरह वह वहाँ से बच निकली, लेकिन उसके पति मारे गए और उनका शव पेड़ पर ही लटकता रहा. इसी प्रकार ४५ वर्षीय आमला तेंदू पत्ते तोड़ रही थी, जब सुरक्षा कर्मी पहुंचे और उन्होंने कहा कि वह माओवादियों की जासूस है. उन्होंने आमला को जमीन पर पटक दिया, उसके कपड़े फाड़ दिए और उसके दो बेटियों के सामने उससे बलात्कार किए. इसी प्रकार एक और मामले में पुलिस कर्मियों ने माधवी गंगा, उसके बेटे बीमा और उसकी बेटी हुरे को पकड़कर चिंतलनार पुलिस स्टेशन ले गए. पुलिस ने २० वर्षीय हुर्रे को एक अलग कोठरी में रखा, उसे नंगा कर दिया और उसके साथ रात भर बलात्कार की कार्यवाही होती रही. नक्सल विरोधी अभियान के क्रम में पुलिस ने मोरपल्ली गांव में ३७, तिमापुरम में ५० और ताड़मेटला में २०० मकानों तथा इन मकानों में रखे सामानों को जला दिया. सवाल यह है कि अब ये लोग इस वर्ष क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे और कहाँ जाकर रहेंगे ? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या इस देश में उन्हें नागरिकता का अधिकार है या नहीं ?


आदिवासियों के घर एवं उपयोगी
सामग्री सहित जले हुए अनाज
          यह सारा कांड इसलिए किया गया क्योंकि यहाँ के गांव वालों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर सरकार द्वारा संचालित शिविरों में जाकर रहने से इंकार किया था. पुलिस के अनुसार चूंकि इन गांव वालों नें इन शिविरों में जाकर रहने से इनकार किया, इसलिए ये लोग माओवादियों से अलग नहीं हैं. पुलिस का भी यही कहना है कि अगर वे सरकार का साथ दे रहे होते तो वे जरूर शिविरों में जाते, लेकिन वे हमारी इसलिए नहीं सुन रहे थे क्योंकि या तो वे माओवादी हैं या उनके समर्थक. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों तथा अन्य स्थानीय लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करने का क्या इससे औचित्य मिल जाता है ? इस मामले पर काफी हंगामा होने के बाद दंतेवाड़ा के कलेक्टर आर.प्रसान्ना ने जांच का एलान किया और कोंटा के तहसीलदार के नेतृत्व में जांच सदस्यों की एक टीम बनाई.


       आदिवासियों के खिलाफ यहाँ के पुलिस अधिकारी और बड़े नौकरशाह बेहद संदिग्ध भूमिका  निभा रहे हैं. छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने यह कहते हुए कि चूंकि स्थानीय पुलिस सभी आरोपों से इनकार कर रही है, इसलिए किसी जांच की जरूरत नही है. सवाल यह है कि क्या कोई अपराधी अपराध करने के बाद उसे स्वीकार करेंगे ? दंतेवाड़ा के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक एस.आर.पी.कल्लूरी ने तो इसे माओवादी प्रचार कहकर पूरी तरह खारिज ही कर दिया था. मजे की बात तो यह है कि एक तरफ तो जिला प्रशासन ताड़मेटला गांव को दाल, चांवल, खाने का तेल, कपड़े और इंधन आदि भेज रहा था और दूसरी तरफ यह भी कह रहा है कि वहाँ कोई पुलिस कार्रवाई नही हुई. बस्तर के कमिश्नर और दंतेवाड़ा के कलेक्टर को इलाके में राहत सामग्री बांटने से पुलिस ने रोक दिया. कलेक्टर प्रसन्ना का कहना रहा कि घटना के बारे में किसी ने शिकायत दर्ज नही कराई, इसलिए वह कोई कदम नही उठा सकते. क्या उन सुरक्षा कर्मियों के खिलाफ कोई भी गांव वाला शिकायत दर्ज कराएगा, जिन्हें वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों द्वारा भेजा गया हो ? इलाके में राहत सामग्री लेकर जा रहे एक एस.डी.ओ. को अपनी गाड़ी वापस लानी पड़ी, क्योंकि उनपर कोया कमांडो, कोबरा सैनिकों और स्पेशल पुलिस आफिसर के लोगों ने हमला कर दिया था.


बेघरबार आदिवासी
          सरकार लगातार झूठ बोल रही है. अक्टूबर २०१० में राज्य सरकार ने सुप्रीमकोर्ट को जानकारी दी थी कि छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम का कोई अस्तित्व नहीं है. सच्चाई इसके एकदम उलटी थी. सलवाजुडूम का नाम बदलकर कोया कमांडो बटालियन और स्पेशल पुलिस आफिसर कर दिया गया है और भारत सरकार के 'सुरक्षा संबंधी खर्चे' के मद से इनपर पैसे व्यय कर रही है. छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारीयों ने इन सैनिकों को इसलिए तैनात किया है ताकि सरकार की बात न सुनने वालों से गांव को खाली कराया जाए. सुरक्षा बलों को यही समझाया गया है कि जो लोग गांवों में टिके हुए हैं वे या तो माओवादी हैं या इनके समर्थक हैं.

          ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा चिंता की बात राज्य द्वारा लोगों के विचारों और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है. इनका आज छत्तीसगढ़ में कोई अस्तित्व नही है. इन इलाकों में यह कह कर किसी को घुसने नहीं दिया जाता कि इलाका बहुत असुरक्षित है. दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक का आदेश है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति गांवों में न घुसे. नतीजतन न कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा मानवाधिकार कार्यकर्ता अगर गांवों में घुसने की कोशिश करते हैं तो उनपर हमला होता है या पुलिस पकड़ कर ले जाती है.

          एक तरफ तो पुलिस बाहरी लोगों को दंतेवाड़ा में सुरक्षा कारणों से रोकती है जिसके फलस्वरूप स्वामी अग्निवेश, नंदिनी सुंदर तथा अन्य लोगों पर हमले हुए और उन्हें पकड़ लिया गया, हिमांशु कुमार के आश्रम को ध्वस्त कर दिया गया और उन्हें राज्य छोड़कर बाहर जाना पड़ा. दूसरी तरफ टाटा, एस्सार, जिंदल, भूषण जैसे कारपोरेट घरानों के प्रतिनिधियों का इलाके में स्वागत किया जाता है और उन्हें हर तरह की सुरक्षा दी जाती है. आज तक हमने नही सुना कि किसी कोबरा, कोया अथवा एसपीओ ने उनपर हमला किया हो. क्या वे बाहरी लोग नही हैं ? क्या उनकी सुरक्षा के लिए ख़तरा नही हैं ? आखिर क्यों सारा ख़तरा पत्रकारों, मानवाधिकारवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ही है ? दर असल छत्तीसगढ़ में वे सभी लोग बाहरी हैं जो सरकार द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन का और आदिवासियों पर ढाए जा रहे अत्याचार का पर्दाफास करते हैं. दर असल तथाकथित नक्सल विरोधी अभियान इन कारपोरेट घरानों के लिए वहाँ की जमीन सुनिश्चित करने के लिए ही चलाया जा रहा है.

          आज हम विकास और प्रगति के दो चेहरे देख रहे हैं. छत्तीसगढ़ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का नतीजा है जहां एक चेहरा भारत के बहुत तेजी से हो रहे विकसित राज्य के रूप में दिखाई देता है और दूसरा चेहरा गैर कानूनी गिरफ्तारियों, यातनाओं, बलात्कारों और हत्याओं के रूप में दिखाई देता है. सरकार इस दूसरे चेहरे को ढक कर रखना चाहती है. माओवादी हिंसा पर जमकर शोर शराबा होता है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह ख़बरें सुर्ख़ियों के साथ प्रसारित की जाती है. आदिवासी अंचलों में माओवादी भी यही प्रचार करते हैं. क्या एक उभरती हुई महाशक्ति का यही असली चेहरा है, जहां मानव अधिकारों और मानवीय गरिमा का कोई स्थान न हो, बस आर्थिक विकास की दौड़ ही सबसे ज्यादा मायने रखती हो ?

साभार आदिवासी सत्ता 

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