शनिवार, 5 मई 2012

आदिवासी और माओवाद

हर व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि वह अपने समाज के लिए काम करे. अपनी सोच-समझ और क्षमता अनुसार समाज के लिए समाज का समझदार व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वों को निभाने का प्रयास करता है. माओवाद का निशाना आदिवासी समाज या क्षेत्र ही क्यों है ? आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी समाज ही नहीं दीगर समाज भी निवास करते है, वे माओवाद के निशाने पर क्यों नहीं होते ? आदिवासी समाज के लिए संघर्ष करने वाला व्यक्ति या आदिवासी समाज ही इसका निशाना क्यों बनता है ? आदिवासी ससमुदाय का व्यक्ति अपने पैतृक स्थान पर वर्षों से रहने के बाद भी किसी भी रूप में अपने ही क्षेत्र में उतना विकास नहीं कर पाया, जितना गैर आदिवासियों ने थोड़े समय में  किया. यह संघर्ष माओवाद का नहीं है. बन्दूक जरूर माओवादियों के हाथ में है किन्तु निशाना किन्ही दूसरों के आँखों से देखकर लगाई जा रही है. स्पष्टतः यह संघर्ष आदिवासी और गैर आदिवासिओं का है, किन्तु दिखने वाला स्वरूप माओवाद है.

आजादी के ६४ साल बाद भी जहां सरकार नहीं पहुँच पाई, वहाँ आजादी के दशकों पहले से माओवाद था, किन्तु उसके स्थाईत्व का स्वरुप अलग था. बस्तर को शरणार्थी स्थल बनाया जाना भी माओवाद का जड़ है. एक शरणार्थी के द्वारा अपने दस शरणार्थीयों को यहाँ लाकर बसाया जाना भी माओवाद का कारण है. यहाँ लाये और बसाए गए तिब्बती तथा अन्य देशों और राज्यों के शरणार्थियों का यह मुख्य शरणस्थली बन गया है, जिनका सरकार के पास कोई बही खाता नहीं है. हर तरह के शरणार्थी बस्तर की धरती पर दिन दुगनी रात चौगुनी फल-फूल रहे हैं और वहाँ के मूलनिवासी माओवाद की आड़ में नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य हैं, क्यों ?

सरकार ने इन पिछड़े अनुसूचित क्षेत्रों के विकास के लिए औद्योगिक नीति लाई और उद्योगपतियों को उद्योगों की स्थापना के लिए इन्ही क्षेत्रों में जमीन की रेवड़ियाँ बांटी. अर्थात अनुसूचित क्षेत्रों की विकास की शुरुवात सरकार सदियों से रह रहे आदिवासिओं की जमीनें छीनकर कर कर दी है और कर रही है. एक तरफ सरकार द्वारा शरणार्थियों का घर बसाया जाना तथा दूसरी तरफ वहाँ की मिट्टी में सदियों से रचे-बसे इंसानों को उनकी जीवन से जुड़ी जमीन से विस्थापित किया जाना, किस तरह की विकास की श्रेणी में आता है, यह तो सरकार ही जाने. मानव विकास के लिए अपनाई जाने वाली प्राथमिक सुविधाएँ (रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा) औद्योगीकरण के कारण उनका जीवन छिनने के बाद संभवतः प्राथमिकता सूची में लाई जायेगी !! क्योंकि इन उद्योगों के विकास हेतु उनकी जमीन से बेदखल किए गए अनपढ़ आदिवासी मजदूरों की जरूरत है, किन्तु बंधुआ मजदूरों के लिए शिक्षा और विकास की जरूरत नहीं !! इस तरह की नीति तथा इसके क्रियान्वयन में उद्योगपतियों, राजनीतिकारों और सरकार के सरकारी दलालों की भूमिका की कोई सानी नहीं हैं. आज असल में इन्ही उद्योगपतियों, राजनीतिकारों, सरकारी दलालों और आदिवासियों के बीच की कुरूप कड़ी माओवाद का मूल जड़ है. वे भला खुद को पोषण देने वाले अपने ही जड़ों को कैसे काट सकते हैं ?

आज देश में जिस तरह आदिवासियों के स्थायित्व को तोड़कर विकास की चरम सीमा को प्राप्त करने की ललक गैर आदिवासियों में दिखाई दे रहा है. वह आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता. देश का सम्पूर्ण तंत्र और तंत्र को चलाने वाले समता और समानता का डिंडोरा पीटते थक नहीं रहे हैं, वह है कहाँ ? यह गौर करने की जरूरत है. आदिवासियों द्वारा सदियों से जंगलों, पहाडों, बहुमूल्य खाजानो से पटी ममीन पर रहने-बसने या स्थायित्व प्राप्त करने के कारण तथा गैर आदिवासियों द्वारा उन ज्ञात बहुमूल्य खजानों को प्राप्त करने की लालची निगाहें और आदिवासियों के उन पुश्तैनी जमीन, घर-द्वार से बेदखल होने की उत्पन्न शंकापूर्ण परिस्थितियों के बीच के संघर्ष को तोड़ने का अमानवीय स्वरुप ही माओवाद है.

शासन तंत्र और सुरक्षा तंत्र द्वारा मावोवाद के इस पेड़ को मिल रही पोषण के दुराराग्रही साधनों का उपचार करने के बजाय मावोवादी पेड़ के छिलके खुरचे जा रहे हैं. यह इसके उपचार का दुखद पहलु है. यदि शासन द्वारा माओवाद के उपचार की यही स्थिति रही तो माओवाद तो क्या किसी भी वाद का उपचार संभव नहीं है.

यह तो हो ही नहीं सकता कि सरकार के पास इसका इलाज नहीं है. आदिवासियों के संरक्षण हेतु राज्यों के राज्यपालों को पूरा संवैधानिक अधिकार दिया गया है. राज्यपाल और राज्य सरकार देश की संवैधानिक व्यवस्था अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में छटवीं अनुसूची क्यों लागू नहीं करतीं ? राज्य के राज्यपाल और सरकार के पास इसे लागू करने का सर्वाधिकार है, किन्तु अब राज्यपाल की गरिमा मात्र दिखावा रह गया है. राज्य में अब ऐसा लग रहा है कि मानो आदिवासियों को मिटाने के लिए वे भी नक्सलवाद और नकलवाद के साथ हैं. ऐसी स्थिति में अंततः आदिवासियों को अपना जल-जंगल-जमीन, जन, धन खोने तथा उनके अस्तित्व मिटने या मिटाने से कोई नहीं रोक सकता.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. पढ़कर अपनी टिप्पणी लिखनी चाहिए. यदि अच्छा लगा तो क्यों ? बुरा लगा तो क्यों ? यदि नहीं पूछेंगे तो शंकाओं का समाधान नहीं होगा. पूछेंगे तो शंकाओं का समाधान यथा संभव होगा.

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  2. "राज्यपाल और राज्य सरकार देश की संवैधानिक व्यवस्था अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में छटवीं अनुसूची क्यों लागू नहीं करतीं ? राज्य के राज्यपाल और सरकार के पास इसे लागू करने का सर्वाधिकार है, किन्तु अब राज्यपाल की गरिमा मात्र दिखावा रह गया है. राज्य में अब ऐसा लग रहा है कि मानो आदिवासियों को मिटाने के लिए वे भी नक्सलवाद और नकलवाद के साथ हैं. ऐसी स्थिति में अंततः आदिवासियों को अपना जल-जंगल-जमीन, जन, धन खोने तथा उनके अस्तित्व मिटने या मिटाने से कोई नहीं रोक सकता"

    आपने कई दशकों का सारांश इन ५ पक्तियों में कर दिया दिलीप जी ! इस लेख के लिए धन्यवाद !

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    1. धन्यवाद चंद्रेश. इनकी गरिमा और अधिकार अन्यून हैं, किन्तु अपने अधिकारों के न्यूनतम शुरुवात भी नहीं कर पाते हैं राज्यपाल. इसलिए केवल हाथी के दांत ही साबित हो रहे है. इन बेकार की हाथियों को राज्य सरकारें अनावश्यक जनता के पैसे से पालती हैं, किन्तु नतीजा सिफर निकलता है.

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